वक़्त की स्याही से एक गुनाह जो हो गया।
ऐसा क्यों लगता है अब, जीते जी कहि मै खो गया।।
अक्स अपने को बचाने के ख़ातिर खुद ही खुद का सितमगर हो गया।
दिखा कर आईना सच्चाई का, मुझ को जो लूट लिया।
ऐसा क्यों लगता है अब, वक़्त के दामन पर कहि में खो गया।।
अक्स अपने को, बचाने के ख़ातिर, खुद ही खुद का,
सितमगर हो गया।।
जहनुम की दहलीज़ पर, एक कफ़न जो ओढ़ लिया।
धड़कनो का शायद, अभी धड़कना बाकी था, ये जान कर,
दिल-बेगाने ने , दिल जो अपना, तोड़ दिया।।
अक्स अपने को, बचाने के ख़ातिर, खुद ही खुद का,
सितमगर हो गया।
टूटे-दिल की बेहाल-धड़कने, देखती है वक़्त का आईना।
दिखता था अक्स जो अपना कभी, ढूंढता है उसे फिर वो आईना।।
टूट चुकी है डोर ए पतंग, बतलाता है वो आईना।
डूबी है किश्ती, साहिल पर जो, साया भी कहि खो गया।।
ढूंढ सके तो ढूंढ ले अपना फ़िर मांजी नया, बतलाता है वो आईना।।
धुंधलाता अक्स।^2^
डुबी है किश्ती, साहिल से जो, साया भी
कही खो गया।
ढूंढ सके तो जा ढूंढ ले, अपना फिर कोई मांझी नया,
बतलाता है वो आईना।।
मिलो चला हुँ, मिलो मरा हुँ, वक़्त की बिसात पर।
हर मोड़, ज़िन्दगी, खड़ा हुआ हूं, कब्र अपनी से झांक कर।।
अंधकार है ये दिशा हर ओर, कोई रोशनी दिखती नही।
स्वर है वीरान से, ये ज़िन्दगी, हर पल कोई शमशान सी।।
साये में अब भी, मौत के, ज़िन्दगी की जो एक आस है।
हौसला है, अब भी बुलन्द बहुत, संग-दिल मेरी ये जान है।।
पहले जुड़ा, फिर टूट गया, फिर से जुड़ा, और टूट कर फिर बिखर गया।
साथ है अब भी साया वो मेरे, यह हौसले की बात है,
अक्स अपने को बचाने की ख़ातिर खुद में, खुद का
सितमगर हो गया।।
दस्तूर ए दुनियां, देखा है हम-ने, हर एक यहाँ वो वाक्या।
बढ़ा कर हाथ, खिंच लेना पीछे, दफना गया है जिंदा कब्र में जो हमे, हर एक यहाँ वो वाक्या।।
धुंधलाता अक्स.. .^अनित भाग^
दस्तूर ए दुनियां, देखा है हमने, हर एक यहाँ वो वाक्या।
बढ़ा कर हाथ, खिंच लेना पावस, दफना गया है जिंदा कब्र में जो हमे, हर एक यहाँ वो वाक्य।।
बुलंद हड्डियों का अपनी, बना कर सुरमा।
राह ए हक़ीक़त, हमने जो बिखेर दिया।।
आग ए जहनुम, दरिया ए दर्द, ये उफ़ान ए जज़्बात।
रुकी सासे, बेबस धड़कने, ये खामोश अल्फ़ाज़।।
वॉर ए ख़ंजर, दगा ए ऐतबार, ये हाथ ख़ंजर,
कमर पे अपने, वो अपनो के निसान।
ओढ़ लिया सरे-राह जो, एक दर्द बेदर्द के साथ,
नाम ए बेगाना, वो था कफ़न मेरा, एक बेनाम।।
जब भी लगी ठोकर ए ज़माना, जान कर भी, खुद ही अंजाना हो गया।
अक्स अपने को बचाने के ख़ातिर, खुद ही खुद का सितमगर हो गया।।
रचनाकार विक्रांत राजलीवाल द्वारा लिखित।