एक रोज़ जो न निकले सूर्य, छा जाए अंधकार जीवन मे हमारे, तो हैरत होगी क्या तुम्हें।
एक रोज़ जो सांसे रुक जाए हमारी, बन्द सीने में ही धड़कने टूट जाए तो हैरत होगी क्या तुन्हें।।
एक रोज़ जो राही भूल जाए रास्ता मंजिलो का अपनी, हो जाए लापता राह अनजान में कही, तो हैरत होगी क्या तुम्हें।
एक रोज़ जो टूट जाए आईने सच्चाई के, अक्स भी धुंधला जाए, व्यक्तित्व का खुद की नज़रो में कही, तो हैरत होगी क्या तुम्हें।।
हा ये ज़िन्दगी है जिसे जीना ही होगा, भुला कर खुद को ज़हर-सांसो से अपने, जिंदगी को पीना ही होगा।
ठहर गए है जो लम्हे ए ज़िन्दगी, उन्हें जीने से पहले, उसे खुद मरना ही होगा, कफ़न हर आरज़ू का अपनी, खुद सीना ही होगा।।
विक्रांत राजलीवाल द्वारा लिखित।
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