सत्य है यही सदियोँ से धर्म के नाम पर जुबां अक्सर बट जाती है।
होती है सियासत जब घिनोनी तो जुबां दम अपना तोड़ जाती है।।
काश ये होता कि हर जुबां घिनोनी सियासत से आजाद होती।
मिलती सबको खुली आजादी और हर जुबां भी सिर्फ जुबां होती।।
जुबां का जुबां से रिश्ता नज़र कुछ कुछ तो जरूर आता है।
हक़ीक़त है या फ़साना मगर हर जुबां का दूसरी जुबां से जरूर कुछ गहरा नाता है।।
कोई जुबां बहने होती है तो कोई मौसी और भतीजी, कोई किसी की माँ है तो कोई किसी की बेटी।
हर जुबां का दर्द मेरा कलेजा चिर सा जाता है, होती है जब जुबां से जुबां के नाम पर मतलबी सियासत तो जुबां दम अपना तोड़ जाती है।।
क्यों ये हालात पैदा हो जाते है, कौन इन्हें कर देता है जवान।
हर धर्म, हर जुबां एक निसान हक़ीक़त का है जो इंसानियत का नाम।।
धर्म और जुबां के नाम पर अब कर दो बंद ए सियासतदारों ये घिनोनी सियासत की अपनी दुकान।।।
बख्श दो धर्म और जुबां को मतलबी सियासत से गंदे जो मतलबी अरमान, महकने दो लवजो से लवजो के खिलते हर लव्ज़, हर लव्ज़, हर जुबां के अपने एहसास।
धर्म और जुबां अक्स इंसानियत का, आबाद अस्तित्व उनका सदियों से भी है पुराना, बोलती है जुबां तो खिलते है गुल, हर गुल महोबत का बोलता एक एहसास।।
विक्रांत राजलीवाल द्वारा लिखित।
18/05/2019 at 7:35 am
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